यात्रा में जनता से करीबी संवाद करने से राहुल, कांग्रेस दोनों में आएगा बदलाव

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अनिल सिन्हा
राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा अपने रास्ते पर थोड़ा आगे बढ़ चुकी है। वह तमिलनाडु से निकल कर केरल में आ गई है। हालांकि लोग कांग्रेस को पुरानी कहावत याद दिला रहे हैं कि दिल्ली अभी दूर है। भले ही, देश की सबसे पुरानी पार्टी यह दावा करे कि वह यात्रा के जरिए कोई राजनीति नहीं कर रही है, लेकिन किसी को इसमें संदेह नही होना चाहिए कि इस यात्रा के निश्चित राजनीतिक उद्देश्य हैं। यात्रा का विरोध करने वालों का यह सवाल भी बेमतलब है कि यात्रा कितनी राजनीतिक है। राजनीति गलत काम नहीं है। राजनीतिक पार्टियों को राजनीति करनी चाहिए और इसके बारे में बताना भी चाहिए। इस पर जरूर बहस होनी चाहिए कि कौन सी पार्टी क्या राजनीति कर रही है। यानी उसकी नीतियां क्या हैं और देश-समाज को लेकर उसके सपने क्या हैं। हमारे लोकतंत्र की एक बड़ी कमजोरी यह है कि मतदाताओं को पता ही नहीं है कि किस पार्टी की क्या नीति है। पार्टियां अपने कार्यकर्ताओं को भी नहीं बताती हैं कि उनकी विचारधारा क्या है। क्या राहुल गांधी की यह यात्रा इस कमजोरी को कम करेगी? इस यात्रा से कांग्रेस को अपने विचार जनता के सामने लाने का मौका मिला है। साढ़े तीन हजार किलोमीटर की यात्रा में राहुल या उनके नेता चाहें या न चाहें उन्हें देश के ज्यादातर सवालों के बारे में अपनी नीतियां बतानी पड़ेंगी। इस क्रम में कई सवालों के जवाब देना उनके लिए मुश्किल भी होगा। गौर से देखें तो यात्रा की थीम काफी सोच-समझ कर बनाई गई मालूम होती है। कांग्रेस ने उन जरूरी मुद्दों को उठाया है जो देश के लिए महत्वपूर्ण हैं:

राहुल की अगुवाई वाली कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा (फोटोः PTI)

  • पहला मसला नफरत भरा माहौल बदलने का है। माना गया था कि रामजन्मभूमि विवाद हल होने के बाद मंदिर-मस्जिद विवादों से देश को मुक्ति मिल जाएगी। लेकिन यह थमने का नाम नहीं ले रहा है। काशी और मथुरा ही नहीं, देश के अन्य हिस्सों में भी ऐसे झगड़े जोर पकड़ने लगे हैं। हिजाब का मुद्दा भी ऐसा ही है। गुजरात की सांप्रदायिक हिंसा का भूत भी पीछा नहीं छोड़ रहा। गुजरात गैंगरेप के अपराधियों का जेल से बाहर आना और उनका स्वागत होना भी यही दिखाता है कि यह बीमारी गंभीर है। इन सबके बीच नफरत छोड़ने का नारा देकर राहुल गांधी की इस यात्रा ने निश्चित रूप से एक सकारात्मक पहल की है।
  • यात्रा ने आर्थिक सवालों को दूसरा बड़ा मुद्दा बनाया है। इसमें महंगाई, बेरोजगारी जैसे सवाल तो खुद ही आ जाते हैं। वे सवाल भी आ जाते हैं कि सरकारी कंपनियों का निजीकरण हो या नहीं, शिक्षा, स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च को कितना बढ़ाया जाए, नौकरी करने वालों को किस तरह की सुरक्षा दी जाए। किसानों को फसल का वाजिब दाम और अन्य सुविधाएं देने का क्या तरीका हो। इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस के लिए इन सवालों का सामना करना मुश्किल होगा क्योंकि इनमें से कई सवाल उसकी आर्थिक नीतियों ने ही पैदा किए हैं।
  • यात्रा का तीसरा मुद्दा संघीय ढांचे के कमजोर होने का है। ऐसा नहीं है कि यह सवाल अतीत में नहीं उठा है। केंद्र और राज्यों में अलग-अलग पार्टी की सरकारें होने पर यह सवाल गहरा हो जाता है। केंद्र सरकार की ओर से राज्यों में विपक्षी पार्टियों की सरकार गिराने और राष्ट्रपति शासन लगाने की घटनाएं पहले भी होती रही हैं। इसे रोकने के लिए कानूनों में सुधार किए गए और दल-बदल कानून भी बना। लेकिन इसने अब बुरी शक्ल ले ली है। राज्यों की कई सरकारें इस तरह गिरी हैं, जिनमें दल-बदल कानून की धज्जियां उड़ गई हैं। इसके अलावा जीएसटी जैसे कई कानून बन गए हैं जिनसे राज्यों की स्वायत्तता में काफी कमी आई है। राज्य सरकार के राज्यपाल से संबंध भी लगातार विवादों के घेरे में रहे हैं।

सबसे बड़ा सवाल है लोकतंत्र के बदलते स्वरूप का। हमें यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि राजनीतिक शक्तियों का बहुत ज्यादा केंद्रीकरण हो गया है। इसमें नई टेक्नॉलजी का भी बड़ा योगदान है। अब फैसले तेजी से लिए जा सकते हैं और उन्हें बिना देरी के नीचे तक पहुंचाया जा सकता है।

ऐसे में, राहुल गांधी की इस बात में दम है कि लोगों से संवाद की जरूरत है क्योंकि टेक्नॉलजी ने सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों के जनता के साथ संवाद को एकतरफा बना दिया है। अमीरी की तारीफ करते-करते हम ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं कि सादगी से हमारा नाता टूट रहा है। अमीर-गरीब के बीच की खाई के बारे में भी हमने सोचना बंद कर दिया है। क्या ऐसे मुल्क में जहां अस्सी करोड़ लोग सरकारी राशन पर जीने के लिए मजबूर हैं, ऐसी स्थिति सही मानी जाएगी? पांच महीने चलने वाली भारत जोड़ो यात्रा से सरकारी नीतियों की दिशा से जुड़े ऐसे सवाल बहस के केंद्र में आएंगे।

सत्ताधारी बीजेपी मानती है और यह बात उसके लोग कह भी रहे हैं कि कांग्रेसी पहले अपनी पार्टी को जोड़ने की फिक्र करें। यह सोच लोकतांत्रिक नहीं है। हर पार्टी को अपने-अपने स्तर पर देश के बड़े सवाल उठाने चाहिए। यह मानना भी सही नहीं है कि इस यात्रा से कांग्रेस को कोई लाभ नहीं होगा। क्या सरकार को कटघरे में खड़ा करना कोई मामूली सफलता है? जनता के साथ नजदीक से संवाद के बाद राहुल और कांग्रेस बदले बिना नहीं रह सकते। सच तो यह है कि इस यात्रा ने जाने-अनजाने उन्हें आजादी के आंदोलन की विरासत से सीधे जोड़ दिया है, जिसका मुख्य हथियार सत्यागह था। लंबे समय तक सत्ता में रहने से कांग्रेस प्रतिरोध के इस हथियार को भूल गई थी।

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं



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