समृद्ध होने वाला है हिंदी साहित्य का भविष्य: गीतांजलि श्री

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संदीप कुमार / नई दिल्ली 09 13, 2022






 अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से सम्मानित हिंदी की पहली साहित्यकार गीतांजलि श्री ने इस पुरस्कार के प्रभाव, हिंदी साहित्य के भविष्य और अपनी रचना प्रक्रिया समेत अनेक विषयों पर संदीप कुमार से बातचीत की। प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश: 

आप हिंदी की पहली लेखिका हैं जिनकी कृति को प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला है। क्या इससे हिंदी के अन्य लेखकों की स्वीकार्यता और पूछ बढ़ेगी?

यदि किसी प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार और लेखकों के फायदे और उन की स्वीकार्यता के बीच कोई संबंध होता है तो रेत समाधि को मिले पुरस्कार का प्रभाव हिंदी जगत तक सीमित नहीं होगा। यह पुरस्कार दरअसल किसी भी दक्षिण एशियाई भाषा के लिए पहला है। इस तथ्य की ओर इशारा केवल आप के प्रश्न के वास्तविक परिप्रेक्ष्य को बताने के लिए कर रही हूं। इस का प्रभाव कमोबेश हमारे यहां की सारी भाषाओं के लिए होगा।

जहां तक लेखकों को इस पुरस्कार से हो सकने वाले लाभ की बात है तो बड़े से बड़े पुरस्कार का रंग भी ज्यादा देर तक नहीं टिकता। बस एक लहर आ के चली जाती है। नोबेल पुरस्कार साहित्य के लिए मिलने वाला संसार का सर्वमान्य सर्वोच्च पुरस्कार है। साल दर साल मिलता है। बड़ा हल्ला होता है इस के मिलने पर। पुरस्कृत कृति अनेक भाषाओं में अनूदित होती है। पुरस्कृत लेखक के सम्मान की होड़ शुरू हो जाती है। कितने दिन चल पाता है यह सब नोबेल पुरस्कार की बैसाखी के सहारे? फिर कृति भर रह जाती है अपने दम पर पढ़ी या भुला दिए जाने के लिए।

हां, फिलहाल रेत समाधि को मिले बुकर का कुछ अच्छा प्रभाव तो दिख रहा है। शायद सब से बड़ा लाभ- यह है कि अपनी मातृभाषा से विमुख होने लगे अंग्रेजी शिक्षा पाए मध्यवर्गीय भारतीय समझ रहे हैं कि उन की भाषा में भी अच्छा साहित्य लिखा जाता है। निरे हैं जो किताब हिंदी में पढ़ गए हैं। किंतु केवल बुकर के सहारे स्थायी कल्याणकारी परिणामों की आशा व्यर्थ होगी। 

आपकी पुरस्कृत रेत समाधि के हवाले से इस कृति या अन्य कृतियों में भी कथा सिर्फ बाहर घटित होती घटनाओं का ब्योरा नहीं होती। आपके पात्रों, खासकर महिला मन की कशमकश और उनकी आंतरिक यात्रा एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा होती है? यह गीतांजलि श्री को कैसे प्रभावित करती है?

यह यात्रा ही तो गीतांजलि श्री से लेखन करवाती है।

 आपके मुताबिक लेखक और अनुवादक के बीच कैसा तालमेल होना चाहिए? आप और आपकी अनुवादक डेजी रॉकवेल अनुवाद की इस पूरी प्रक्रिया में आपस में किस तरह जुड़ी हुई थीं?

अनुवाद पर अध्ययन तो अरसे से चल रहा है। न केवल साहित्य के अध्येता बल्कि और विषयों के लोग भी अनुवाद के अर्थ और उसमें अंतर्निहित प्रक्रिया के अध्ययन में गंभीर रुचि ले रहे हैं। लेखक और अनुवादक के संबंध का सवाल बड़ा बुनियादी है। वह संबंध तब भी होता है जब अनुवाद किसी मृत लेखक की कृति का किया जाता है। वहां भी एक तालमेल होता है अनुवादक और लेखक के बीच। कुछ इसी से मिलता-जुलता संबंध तब भी बनता है जब लेखक जीवित तो है पर अनुवाद की भाषा से पूरी तरह अनभिज्ञ। अपनी ही बात करूं तो मेरे पहले उपन्यास माई का सर्बियन में अनुवाद हुआ और मेरे और अनुवादक के बीच बात तक नहीं हुई।

जहां तक रेत समाधि की अनुवादक डेजी रॉकवैल और मेरी बात है, हम लोग पहली बार बुकर पुरस्कार की घोषणा से चार दिन पहले लंदन में मिले। कोविड का जमाना था सो डेजी अनुवाद के दौरान अमरीका से हिंदुस्तान नहीं आ सकती थी। हां, ईमेल मुसलसल होते रहे हमारे बीच। हिसाब लगाने बैठूं तो बता नहीं पाऊंगी कि हमारे बीच सहमति ज्यादा रही उस बीच या असहमति। पर तालमेल में कोई कमी नहीं रही। कारण कि दोनों में एक दूसरे को ले कर विश्वास था।     

आपके उपन्यासों की बात करें तो माई, हमारा शहर उस बरस, तिरोहित, खाली जगह और रेत-समाधि सभी अलग-अलग लेकिन गहन संवेदनशील विषयों को उठाते हैं। मध्यवर्गीय परिवार की दिक्कतों से लेकर सांप्रदायिकता और स्त्री समलैंगिकता जैसे व्यापक और संवेदनशील विषयों पर केंद्रित इन रचनाओं को लिखते हुए आपके भीतर की लेखिका ने खुद में किस तरह के बदलाव महसूस किए? 

मेरे लेखन से मेरे अंदर आए बदलाव के संदर्भ में वही कहूंगी जो अंतर्यात्रा से संबंधित आप के दूसरे सवाल के जवाब में कह चुकी हूं। अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में इस से ज़्यादा कुछ नहीं कह सकती कि वह मेरे चलाए नहीं चलती।  

आप तीन दशक से अधिक से लेखन में हैं? क्या हिंदी में कोई लेखक केवल लिखकर जीविकोपार्जन कर सकता है? क्या लेखकों के लिए हालात पहले से बेहतर हुए हैं?

तीन दशक तक साहित्यिक लेखन करने के बाद भी बेहिचक कह सकती हूं ‘नहीं’। न ही मैं देख पा रही हूं कि हिंदी में लेखक की आर्थिक स्थिति सुधरी है। यही हाल कमोबेश सारी भारतीय भाषाओं में है।

लेखन की भाषा के रूप में आप हिंदी के भविष्य के बारे में क्या सोचती हैं? कौन सी बातें उसका भविष्य निर्धारित करेंगी?

वैश्वीकरण और बाजारवाद के इस युग में अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व के परिणामस्वरूप एक ऐसी चिंताजनक स्थिति उभर आई है कि लोगों ने हिंदी के अंत की बात शुरू कर दी है। मेरा मानना है कि भले ही एक स्तर पर खासी गड़बड़ चल रही हो, समाज के अनेक तबकों से आ रहे इतने अलग-अलग तरह के लोगों ने पहली बार हिंदी में लिखना शुरू कर दिया है कि अनेक नयी आवाजें हिंदी साहित्य में उठने लगी हैं। इन से एक नयी ऊर्जा हिंदी साहित्य को मिल रही है। सो भविष्य में नए-नए तेवर मिलने वाले हैं, हमारा साहित्य समृद्ध होने वाला है।

 

वर्तमान आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में साहित्यिक कृतियों  की क्या भूमिका हो सकती है?

परिदृश्य जिस तरह बदल रहा है, संभावना यही है कि अच्छे साहित्य का स्वर सकारात्मक आलोचना का होगा। हमारा देश है, हमारा समाज है, ज़िम्मेदारी भी हमारी है।

अभी आप क्या रच और पढ़ रही हैं? 

अपनी चंद पसंदीदा कृतियों और कोई नयी रचना यदि आ रही हो तो उसके बारे में कृपया हमारे पाठकों को कुछ बतायें।

बुकर के बाद ज़िंदगी कुछ इस तरह बदल गई है, और लगता है कुछ और दिन ऐसे ही चलेगी, कि पढ़ने-लिखने का वक्त नहीं मिल रहा। एक उपन्यास – सह-सा –  प्रकाशक को देने से पहले बस एक बार थोड़ा देखना- संवारना है। वह भी नहीं कर पा रही। पढ़ना भी मनोयोग से नहीं हो पा रहा। कुछ छिटपुट ही।

इन दिनों के बदलने का इंतजार है और पुरानी पटरी पर कमोबेश लौटने का!

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