Uttarkashi Avalanche: उत्तराखंड में शांत ‘द्रौपदी’ ने आखिर अपना रौद्र रूप क्यों दिखाया?

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नई दिल्ली/उत्तरकाशी: हे द्रौपदा! उनकी रक्षा करना। दिल से यही निकल रहा है। द्रौपदी के डांडा से चार की मौत की खबर आ चुकी है। इसमें उत्तराखंड की बेहद होनहार और साहसी बेटी सविता कंसवाल भी शामिल है। वह कुछ महीने पहले ही एवरेस्ट और मकालू को 16 दिन में लांघ आई थी। 14 रेस्क्यू कर लिए गए हैं, लेकिन 26 पर्वतारोही अभी भी लापता हैं। वे किन हालात में हैं, कुछ पता नहीं है। बर्फ के तूफान में फंसे इन सभी के लिए दिल धड़क रहा है। माना जा रहा है ये सभी किसी क्रेवास यानी की बर्फ की दरारों में फंसे हुए हैं। क्रेवास हिमालय की चोटियों में मौत के अंधे कुएं जैसे होते हैं। बड़ा से बड़ा पर्वतारोही इनसे डरता है। गहरी दरार के ऊपर बर्फ की एक कच्ची सी परत। पैर पड़ा नहीं कि पर्वतारोही उसमें समा जाता है। इसीलिए सभी रस्सी से बंधकर चलते हैं। उम्मीद यही है कि यह दरार बहुत गहरी न हो। सभी सुरक्षित हों। वे निकल जाएं। द्रौपदा उनकी रक्षा कर रही होंगी, ऐसा विश्वास है।

द्रौपदी का यह कैसा रौद्र रूप!
उत्तराखंड के डांडा-कांठ्यों में पांडव आज भी हैं! लोकविश्वास में। जागरों, पांडव नृत्यों में (देवगान) में नृत्य करते हुए। द्रौपदा भी नाचती हैं। पूजी जाती हैं। उन्हीं के नाम पर द्रौपदा का डांडा है। डांडा यानी चोटी। द्रौपदी की चोटी। उत्तरकाशी से करीब 70 किलोमीटर दूर साढ़े 18 हजार फीट ऊंची।धवल। चांदी सी चमकती हुई। अपने पास बुलाती हुई। मान्यता है कि पांडवों के साथ स्वर्गारोहण कर रहीं द्रौपदा ने उत्तरकाशी के इसी पहाड़ पर अपना शरीर त्यागा था। वह यहां पूजी जाती हैं। जान हथेली पर रखकर इन हिमशिखरों पर चढ़ने वाले भटवाड़ी, भुक्की गांव से होकर ही शीश झुकाते हुए द्रौपदा के डांडा पर बढ़ते हैं। उत्तरकाशी में नेहरू पर्वतारोहण संस्थान (NIM) के अडवांस्ड कोर्स के 41 ट्रेनीज का ग्रुप यहीं से आगे बढ़ा था। माहिर पर्वतारोही सविता कंसवाल इस ग्रुप में बतौर इंस्ट्रक्टर शामिल थीं।

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द्रौपदी का डांडा-2 नेहरू पर्वतारोहण संस्थान का प्रिय ट्रेनिंग स्थल है। हर साल संस्थान के कई ग्रुप यहां ट्रेनिंग के लिए लाए जाते रहे हैं। उन्हें पर्वतारोहण के गुर सिखाए जाते हैं। सात बार एवरेस्ट फतह कर चुके लवराज धर्मसत्तू, जानी मानी पर्वतारोही शीतलराज भी द्रौपदी का डांडा में ट्रेनिंग ले चुकी हैं। डोकराणी बामक ग्लेशियर से पीछे अडवांस्ड बेसकैंप है। यहीं ठहरकर ग्रुप आगे बढ़ता है। NIM के इतिहास में इस जगह पर यह पहला इतना बड़ा हादसा है। यहां जा चुके पर्वतारोही कुदरत के इस मिजाज से हैरान हैं। द्रौपदी के इस रौद्र रूप से हतप्रभ हैं। दरअसल हिमालय में मौसम बदल रहा है। नेपाल में भी हिमस्खल की घटनाएं हो रही हैं। इन सबके के बीच बड़ा सवाल यही है कि आखिर बर्फ में दबे पर्वतारोही किस हालत में होंगे? क्या वे अपने हौसले से मौत को मात दे देंगे?

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आखिर उस दिन हुआ क्या होगा?
आखिर द्रौपदी के डांडा में हुआ क्या होगा। एवरेस्ट पर चढ़ चुकीं 25 साल की युवा पर्वतारोही शीतलराज कहती हैं समिट के दौरान पहाड़ ट्रिगर कर जाते हैं। इंसान के जाने से वाइब्रेशन होता है। संभव है इस अभियान दल के साथ यही हुआ होगा। बर्फ कच्ची हो तो वह हिमस्खलन की शक्ल ले लेती है। आखिर हिमस्खलन होता कैसे है? वह समझाते हुए बताती हैं कि बर्फ का एक छोटा सा टुकड़ा टूटता है। और फिर पूरा पहाड़ उसके साथ नीचे आने लगता है। यह कुछ ऐसा है, जैसे चावल के ढेर से एक चावल निकाल दें, तो वह खिसकने लगता है। वहीं लवराज धर्मसत्तू बताते हैं कि एवलांच तो आते रहते हैं। द्रौपदी के डांडा में इस तरह के अवलांच से वह हैरान हैं। वह बताते हैं कि यह पहाड़ उतना खतरनाक नहीं है। हमने वहां कोर्स किया है। मैं द्रौपदी के डांडा में गया हूं। यह सेफ जगह मानी जाती है। कई सालों से यहां निम के अडवांस्ड ग्रुप की ट्रेनिंग चल रही है। द्रौपदी के डांडा में नीचे सॉलिड बर्फ है। ट्रेनिंग के लिहाज से यह आदर्श जगह है।

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बुधवार सुबह तक 41 में से 14 पर्वतारोही रेस्क्यू कर लिए गए थे

आखिर बर्फ में दबे पर्वतारोही किस हाल में होंगे?
शीतलराज कहती हैं कि चमत्कार होते हैं। कुछ अरसे पहले ही उत्तरकाशी में एक महिला पर्वतारोही को तीन दिन बाद रेस्क्यू कर लिया गया था। कई बाद उम्मीद कम होती है, लेकिन सबकुछ विल पावर तय करती है। अगर आपके अंदर जज्बा है, तो मौत को हरा सकते हैं। शीतलराज बताती हैं कि जिस तरह से हमारी स्किन फट जाती है और उसमें दरारें आ जाती हैं, हिमालय में भी ऐसा ही होता है। क्रवासेज बन जाते हैं। उन पर ताजी बर्फ गिरने से वह ढक जाते हैं। ये गलियां कहां जाकर मिलती हैं, कुछ पता नहीं होता। धर्मसत्तू कहते हैं कि पर्वतारोहियों के बचने की उम्मीद इस पर है कि वे कहां पर फंसे हैं। वे कितने नीचे है। दरार की चौड़ाई कितनी है। जगह टनल टाइप की तो नहीं है। वहां पानी तो नहीं आ रहा है। अगर दरार में पानी है और वह डीप हो तो, यह बहुत चैलेंजिंग हो जाता है। वह भी कहते हैं कि बेहद मुश्किल हालात में भी लोगों ने सर्वाइव किया है।

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द्रौपदी की गोद में सो गई हिमालय की बेटी सविता कंसवाल

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युवा पर्वतारोही सविता कंसवाल की हिमस्खलन में मौत हो गई

उसके पास जूते नहीं थे। छह हजार रुपये की नौकरी करके उसने एवरेस्ट के सपने बुने। 25 साल की सविता कंसवाल ने फिर इतिहास रचा। 16 दिन के अंदर वह माउंट एवरेस्ट फिर माउंट मकालू फतह कर आई। वह 8000 मीटर से ऊंची सभी नौ चोटियों को फतह करना चाहती थी। पर द्रौपदी के आंचल में उत्तराखंड की यह बेटी सो गई। इस अभियान दल के साथ वह इंस्ट्रक्टर के तौर पर शामिल थी। मंगलवार को उसकी मौत की खबर आई। सविता के न रहने की खबर से शीतलराज हिली हुई हैं। वह कहती हैं कि हम बहुत अच्छे दोस्त थे। धर्मसत्तू सविता के जीवट और संघर्ष को याद करते हैं। वह कहते हैं कि वह एवरेस्ट गई थी, तो कुछ सामान कम था। उन्होंने उसे वह दिया था। एवरेस्ट से आने के बाद उसे मकालू जाना था। पैसे पूरे नहीं हो रहे थे। जिस एजेंसी से बात हो रही थी, वह कुछ ज्यादा पैसे ले रही थी। मैंने अपने संपर्कों का इस्तेमाल कर कुछ पैसे कम करवाए। वह अभियान के लिए रवाना हो पाई थी। अभी कुछ दिन पहले ही देहरादून में स्पोर्ट्स मीट में उससे मुलाकात हुई थी। मैंने उससे कहा था कि सबसे पहले अपने रोजगार के बारे में सोचो। मुख्यमंत्री जी से बात करो। जब जॉब नहीं हो, तो कई नहीं पूछता। दो महीना है तुम्हारे पास। दो महीने बाद कोई नहीं पूछने वाला है। वह बहुत होनहार पर्वतारोही थी। उसके यूं चले जाने पर विश्वास नहीं हो रहा है।

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