ध्रुवीकरण के दलदल में धंसता समाज!
सोचिए, दिल दहला देने वाले इतने संवेदनशील मामले पर भी जाति-धर्म के दायरे में रहकर ही प्रतिक्रिया दी जा रही है। सोशल मीडिया फिर से दो धड़ों में बंट गया है। दोनों एक-दूसरे से गुत्थम-गुत्था हैं। राजीव गुप्ता लिखते हैं, ‘लखीमपुर खीरी की दो नाबालिग दलित लड़कियां पेड़ से झूलती मिलीं। हमेशा की तरह, इस बार भी सारे गुनहगार मुस्लिम हैं। दलितों के खिलाफ ज्यादातर अपराध मुसलमान करते हैं। सभी अपराधी सपा/बसपा/कांग्रेस के वोट बैंक से हैं।’
घटना सामने आते ही पत्रकार सबा नकवी ने भी ट्वीट किया। उन्होंने एक खबर को रीट्वीट करते हुए लिखा कि मृतक लड़कियों की जाति भी बताई जाए। नकवी ने लिखा, ‘जाति का जिक्र करना भी महत्वपूर्ण है जो इस रिपोर्ट में नहीं है। दो नाबालिग लड़कियां यूपी के लखीमपुर में पेड़ से झूलती मिलीं। दोनों बहनें हैं।’ आज अंशुल सक्सेना ने उनपर हमला बोल दिया। उन्होंने कहा कि कल पत्रकार सबा नकवी ने जाति का जिक्र करना महत्वपूर्ण बताया था। आज छह आरोपी गिरफ्तार हुए, लेकिन वो अब नहीं कहेंगी कि अपराधियों का धर्म बताना जरूरी है क्योंकि यह उनके एजेंडे को सूट नहीं करता है।
ट्विटर यूजर @Veer8_ खुद को दलित बताते हैं और विपक्ष की राजनीति पर सवाल उठाते हैं। वो लिखते हैं, ‘एक दलित के रूप में मैं देख रहा हूं कि विपक्ष ने लखीमपुर का टिकट अचानक कैंसल कर दिया। इससे उनकी सोच का पता चलता है। दलित राजनीति महज एक टूल है।’ इन्होंने लखीमपुर के भयावह वाकये पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के ट्वीट को रीट्वीट किया है।
लखीमपुर की घटना पर उत्तर प्रदेश के मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी (सपा) और प. बंगाल के सत्ताधारी दल टीएमसी ने भी ट्वीट किया था। दोनों के ट्वीट्स में मृतक बहनों के लिए दलित लिखा हुआ था। हालांकि, आरोपियों के पकड़े जाने के बाद खबर लिखने तक दोनों पार्टियों की तरफ से ट्विटर पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई।

आखिर जाति, धर्म से इतर कब होगी इंसान की पहचान?
इस तरह की टांग-खिंचाई का खेल अगर गैंगरेप और हत्या जैसे क्रूरतम मामलों में भी खेला जाए तो यह सवाल पूछना लाजिमी होता है कि आखिर हम दुराग्रहों के किस दलदल में धंसते चले जा रहे हैं? आखिर जाति-धर्म से इतर हम इंसान भी तो हैं। आखिर क्यों नहीं हम एक इंसान की तरह सोच सकते हैं, कम-से-कम ऐसे दुर्दांत अपराधों को लेकर भी? नेता और राजनीतिक दलों की मजबूरियां हो सकती हैं, लेकिन एक समाज के तौर पर तो हमारे अंदर गलत को गलत कहने और सच्चाई के साथ खड़े होने का नैतिक बल तो होना ही चाहिए। अगर हमने यह खो दिया है तो इसका मतलब है कि हमारे अंदर इंसानियत मर गई है, सिर्फ जाति बची है या धर्म बचा है।
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